🌾|| मां-बाप का कर्ज ||🌾
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ज्यों-ज्यों तरक्की करते गए सब
मां-बाप के कर्ज बढ़ते गए हैं ।
खुद ना जिए मन मार लिए अपने
औलादों के सुख वो संजोते गए हैं ।
पाई पाई जोड़ के , हंस के या रो के
हमें गुबार गुड़िया मिलते गए हैं ।
जन्म दिया नाजों से , पाला शानों शौकत से
पढ़ लिख कर हम साहब बनते गए हैं ।
मजबूर हो गए हम , दूर हो गए हम
फिर भी हमें वो याद करते गए हैं ।
घर-बार मां-बाप , रिश्ते छूटते रहे सब
ना जाने तरक्की कौन करते गए हैं ।
दस से पांच भए पांच हुए दो
चांद सा अब , हर दिन घटते गए हैं ।
मां-बाप अकेले , अकेले हैं हम भी
उठने की चाहत में गिरते गए हैं ।
ना जाने कैसी आंधी चली है अब
घोंसले से चिड़िया उड़ते गए हैं ।
ज्यों-ज्यों तरक्की करते गए सब
मां बाप से दूर बच्चे बढ़ते गए हैं ।
शहर शहर जगह-जगह बिल्डिंग खड़ी
तलब पैसों की फिर भी बढ़ते गए हैं ।
आधुनिकता का ऐसा नशा जो चढ़ा
संस्कारों के खंडहर बनते गए हैं ।
बेटा बाप - माई से , भाई भी भाई से
रिश्ते रिश्तों से बिगड़ते गए हैं ।
पूछ उनसे जिनके मां बाप बिछड़े हो
दिन उनके कितने फीके लगते गए हैं ।
कर्ज श्रीकांत रिश्तों का अदा कर ले
वक्त दुबारा कहाँ मिलते गए हैं ।
मां-बाप के दिए कभी वापस नहीं होते
बड़े भाग्य से मां-बाप मिलते गए हैं ।
बड़े भाग्य से मां-बाप मिलते गए हैं
बड़े भाग्य से मां-बाप मिलते गए हैं ।
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श्रीकांत सिंह , गोरखपुर , यूपी।
अति सुन्दर 👍👍👍👍
जवाब देंहटाएंधन्यवाद श्रीकांत जी
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